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देवीधुरा में बसने वाली “माँ वाराही का मंदिर” 52 पीठों में से एक

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 देहरादून।

“वाराही मंदिर” उत्तराखण्ड राज्य के लोहाघाट नगर से 60 किलोमीटर दूर स्थित है। शक्तिपीठ माँ वाराही का मंदिर जिसे देवीधुरा के नाम से भी जाना जाता हैं। समुद्र तल से लगभग 1850 मीटर (लगभग पाँच हजार फीट) की उँचाई पर स्थित है। देवीधुरा में बसने वाली “माँ वाराही का मंदिर” 52 पीठों में से एक माना जाता है। उत्तराखंड के नैनीताल जिले से लगे पाटी विकासखंड के देवीधुरा में स्थित मां वाराही धाम अटूट आस्था का केंद्र है। आषाढ़ी सावन शुक्ल पक्ष में यहां गहड़वाल, चम्याल, वालिक और लमगड़िया खामों के बीच बग्वाल (पत्थरमार युद्ध) होता है। देवीधूरा में वाराही देवी मंदिर शक्ति के उपासकों और श्रद्धालुओं के लिये वह पावन और पवित्र स्थान है। जहां पहुंचते ही अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है। यह क्षेत्र देवी का “उग्र पीठ” माना जाता है। इसे पूर्णागिरी की तरह ही माना जाता है। समुद्र की सतह से लगभग २००० फीट की ऊंचाई पर स्थित यह स्थान प्राचीन एवं ऎतिहासिक स्थल से साथ साथ कई पौराणिक कथायें भी जुड़ी हैं। चन्द राजाओं के शासन काल में इस सिद्ध पीठ में चम्पा देवी और ललत जिह्वा महाकाली की स्थापना की गई थी। तब “लाल जीभ वाली महाकाली को महर” और फर्त्यालो द्वारा बारी-बारी से प्रतिवर्ष नियमित रुप से नरबलि दी जाती थी। बताया जाता है कि रुहेलों के आक्रमण के समय कत्यूरी राजाओं द्वारा वाराही की मूर्ति को घने जंगल के मध्य एक भवन में स्थापित कर दिया गया था। धीरे-धीरे इसके चारो ओर गांव स्थापित हो गये और यह मंदिर लोगों की आस्था का केन्द्र बन गया। यह भी बताया जाता है कि पहाड़ी के छोर पर खेल-खेल में भीम ने शिलायें फेंकी थी।

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ग्रेनाइट की इन विशाल शिलाओं में से दो शिलायें आज भी मन्दिर के निकट मौजूद हैं। जिनमें से एक को राम शिला कहा जाता है , इस स्थान पर ‘पचीसी’ नामक जुए के चिन्ह आज भी विद्यमान हैं। जनश्रुति के अनुसार यहां पर पाण्डवों ने जुआ खेला था। उसी के समीप दूसरी शिला पर हाथों के भी निशान हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार यह स्थान गुह्य काली की उपासना का केन्द्र था। जहां किसी समय में काली के गणों को प्रसन्न करने के लिये नरबलि की प्रथा थी। इस प्रथा को कालान्तर में स्थानीय लोगों द्वारा बन्द कर दिया गया। इससे पहले देवीधूरा के आस-पास निवास करने वाले लोगों वालिक, लमगड़िया, चम्याल और गहडवाल खामों (वर्ग) के थे, इन्हीं खामों में से प्रत्येक वर्ष एक व्यक्ति की बारी-बारी से बलि दी जाती थी। लेकिन वर्तमान समय में माँ वाराही देवी की यह मान्यता भी है कि चम्याल खाम की एक बुजुर्ग की तपस्या से प्रसन्न होने के बाद नर की बलि बंद कर दी गयी और “बग्वाल” की परम्परा शुरू हुई | इस बग्वाल में चार खाम उत्तर की ओर से लमगड़िया , दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक , पूर्व की ओर से गहडवाल के रणबांकुरे बिना जान की परवाह किये एक इंसान के रक्त निकलने तक युद्ध लड़ते हैं। लेकिन भले ही तीन साल से बग्वाल फल-फूलो से खेली जा रही हो। उसके बावजूद भी योद्धा घायल होते हैं और उनके शरीर रक्त निकलता दिखता है।

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मुख्य मंदिर गगोरि नामक कंदराओं के बारे में कहते हैं कि इन चट्टानों के बीच से ही देवी ने अपने ग्रह में प्रवेश किया था। यह दोनों विशाल चट्टानों बहुत सक्रिय और सटी हुई है एक पत्थर से निरंतर तेल सदृश द्रव्य निकलता रहता था। दोनों सकरी चट्टानों के बीच से ही प्रवेशद्वार बना है। चट्टानों के मध्य के खाली जगह पर ही “देवी पीठ” है। लोक मान्यता है कि पहले यहां वाराही देवी साक्षात विराजमान थे। परंतु बाद में उन्होंने अपने स्थान पर केवल अपना विग्रह छोड़ दिया। माँ वाराही देवी के मुख्य मंदिर में तांबे की पेटिका में मां वाराही देवी की मूर्ति है। मगर पेटिका में रखी इस देवी मूर्ति के दर्शन अभी तक किसी ने नहीं किए हैं। माँ वाराही देवी के बारे में यह मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति मूर्ति के दर्शन खुली आँखों से नहीं कर सकता है , क्युकी मूर्ति के तेज से उसकी आँखों की रोशनी चली जाती है। इसी कारण “देवी की मूर्ति” को ताम्रपेटिका में रखी जाती है।

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