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उत्तराखंड

केदारनाथ मंदिर की शैली में बना कल्प केदार का मंदिर

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 उत्तरकाशी गंगोत्री यात्रा मार्ग पर हर्षिल धराली क्षेत्र में कल्प केदार का मंदिर स्थित है। कभी हर्षिल धराली क्षेत्र में 240 प्राचीन मंदिरों का समूह मौजूद था।

17वीं सदी में झाला सुक्की के पास माला अवाणा का पहाड़ टूटने से गंगा भागीरथी पर बनी झील में मंदिर समूह के अधिकांश मंदिर डूब गए थे। शेष मंदिर में भी बाद के वर्षों में धराली गांव के बीच से होकर बहने वाली खीर गंगा की बाढ़ की भेंट चढ़ गए। वर्ष 1980 में यहां रहने वाले स्वामी शारदानंद की पहल पर ग्रामीणों ने गंगा किनारे रेत हटाकर एक मंदिर को बाहर निकाला था। यहां जमीन में आधा दबा हुआ केदारनाथ मंदिर की शैली में बना कल्प केदार का मंदिर इसके ऐतिहासिक होने का पुख्ता प्रमाण है।

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प्राचीन कल्पकेदार मंदिर की मौजूदगी धराली के ऐतिहासिक महत्व का बड़ा प्रमाण है। उत्तरकाशी जिला मुख्यालय से 75 किमी दूर गंगोत्री राजमार्ग पर स्थित है धराली गांव। यहीं पर सड़क से करीब 50 मीटर की दूरी पर कल्पकेदार मंदिर है। वर्ष 1945 में स्थानीय लोगों ने गंगा तट पर मंदिर का शिखर नजर आने पर जमीन से करीब 12 फीट नीचे खुदाई कर मंदिर के प्रवेश द्वार तक जाने का रास्ता बनाया। प्राचीनकाल में शंकराचार्य के सनातन धर्म के पुनरुत्थान अभियान के तहत यहां भी मंदिर समूह स्थापित किये गए। इस समूह में 240 मंदिर थे, लेकिन 19वीं सदी की शुरुआत में श्रीकंठ पर्वत से निकले वाली खीर गंगा नदी में आई बाढ़ से कई मंदिर मलबे में दब गए। सन 1816 में गंगा भागीरथी के उद्गम की खोज में निकले अंग्रेज यात्री जेम्स विलियम फ्रेजर ने अपने वृत्तांत में धराली में मंदिरों में विश्राम करने का उल्लेख किया है।

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कल्प केदार मंदिर कत्यूर शिखर शैली का मंदिर है। इसका गर्भ गृह प्रवेश द्वार से करीब सात मीटर नीचे है। इसमें भगवान शिव की सफेद रंग की स्फटिक की मूर्ति रखी है। मंदिर के बाहर शेर, नंदी, शिवलिंग और घड़े की आकृति समेत पत्थरों पर उकेरी गई नक्काशी की गई है। कल्पेश्वर मन्दिर उत्तराखण्ड के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। यह मन्दिर उर्गम घाटी में समुद्र तल से लगभग 2134 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इस मन्दिर में ‘जटा’ या हिन्दू धर्म में मान्य त्रिदेवों में से एक भगवान शिव के उलझे हुए बालों की पूजा की जाती है।

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कल्पेश्वर मन्दिर ‘पंचकेदार’ तीर्थ यात्रा में पाँचवें स्थान पर आता है। वर्ष के किसी भी समय यहाँ का दौरा किया जा सकता है। इस छोटे-से पत्थर के मन्दिर में एक गुफ़ा के माध्यम से पहुँचा जा सकता है। शिवपुराण के अनुसार ऋषि दुर्वासा ने इसी स्थान पर वरदान देने वाले कल्प वृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या की थी, तब से यह ‘कल्पेश्वर’ कहलाने लगा। केदार खंड पुराण में भी ऐसा ही उल्लेख है कि इस स्थल में दुर्वासा ऋषि ने कल्प वृक्ष के नीचे बैठकर घोर तपस्या की थी, तभी से यह स्थान ‘कल्पेश्वरनाथ’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया। इसके अतिरिक्त अन्य कथानुसार देवताओं ने असुरों के अत्याचारों से त्रस्त होकर कल्पस्थल में नारायणस्तुति की और भगवान शिव के दर्शन कर अभय का वरदान प्राप्त किया था।

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कल्पगंगा
कल्पेश्वर कल्पगंगा घाटी में स्थित है। कल्पगंगा को प्राचीन काल में हिरण्यवती नाम से पुकारा जाता था। इसके दाहिने स्थान पर स्थित तट की भूमि ‘दुरबसा’ भूमि कही जाती है। इस जगह पर ध्यानबद्री का मन्दिर है। कल्पेश्वर चट्टान के पाद में एक प्राचीन गुहा है, जिसके भीतर गर्भ में स्वयंभू शिवलिंग विराजमान है। कल्पेश्वर चट्टान दिखने में जटा जैसी प्रतीत होती है। देवग्राम के केदार मन्दिर के स्थान पर पहले कल्प वृक्ष था। कहते हैं कि यहाँ पर देवताओं के राजा इंद्र ने दुर्वासा ऋषि के शाप से मुक्ति पाने हेतु शिव-आराधना कर कल्पतरु प्राप्त किया था।

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