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वीर गबर सिंह नेगी की पुण्यतिथि पर विशेष – जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो क़ुर्बानी….

गबर सिंह
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वीर गबर सिंह नेगी की स्मृति में बैसाख माह की आठ गते 20/21 अप्रैल से त्रिदिवसीय लगता है मेला
देहरादून। ‘सम्पूर्ण उत्तराखंड में जगह-जगह बैसाख और जेठ माह में वीर सपूतों की याद में आज भी मेले लगते हैं। टिहरी गढ़वाल के चम्बा कस्बे में भी प्रतिवर्ष वीर गबर सिंह नेगी की स्मृति में बैसाख माह की आठ गते (20/21 अप्रैल) से त्रिदिवसीय मेला लगता है। मेले के दौरान विक्टोरिया क्रॉस विजेता वीर गबर सिंह नेगी के व्यक्तित्व व कृतित्व पर परिचर्चा और सांस्कृतिक मेले का आयोजन किया जाता है।

चम्बा में मेले की शुरूआत कब हुई कहीं स्पष्ठ नहीं है, परन्तु कुछ लोग मेले का प्रारम्भ 15 दिसंबर 1945 को उनकी स्मृति में स्मारक बन जाने के बाद से मानते हैं। मेला प्रारम्भ से पूर्व गढ़वाल राईफल्स की सैन्य टुकड़ी द्वारा अपने बैण्ड पर विशेष धुन के साथ विक्टोरिया क्रॉस विजेता वीर गबर सिंह नेगी को सलामी दी जाती है। मेले में हर वर्ष गढ़वाल राईफल्स द्वारा कुछ सैनिक भर्ती किये जाते थे, वे जिनके सिर पर वीर गबर सिंह नेगी की पत्नी शतुरी देवी का आशीर्वाद होता था। अब मेलों के प्रति सभी जगह आम लोगों का उत्साह कुछ कम हो गया हो। परन्तु चम्बा का मेला आज भी पूर्ववत सम्पन्न होता है। कुछ लोगों का कहना है कि गढ़वाल राईफल्स द्वारा मेले में शामिल होकर पहले भव्य आयोजन किये जाते थे किन्तु अब मात्र औपचारिकता निभाई जाती है। 1983 में शतुरी देवी के निधन के बाद उनके द्वारा अब सेना में किसी को भर्ती नहीं किया जाता है। वहीं गढ़वाल राईफल्स के सैन्य अधिकारियों कहते हैं यह बड़ी विडम्बना है कि चम्बा की वीर भूमि से हमें आज योग्य युवा नहीं मिल पा रहे हैं। सचमुच में वीरों की खान है चम्बा। चम्बा के उत्तर-दक्षिण ढलानों पर बसे वासिन्दों के भीतर कभी बड़ा जज्बा था तभी तो स्यूंटा गांव से 36, जड़धारगांव से 16, मंज्यूड़ से 11 और गुल्डी से ही अनेक सैनिकों ने प्रथम विश्वयुद्ध में अपनी वीरता का लोहा मनवाया था। परन्तु दुःख इस बात का भी है कि मंज्यूड़ के गबर सिंह नेगी ही नहीं स्यूंटा के भी चार जवान इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।

वीर गबर सिंह नेगी : संक्षिप्त परिचय
आठ गते बैसाख 1952 वि. स. (सन् 1895 के अप्रैल माह) को चमुआखाल (अब चम्बा) के निकट स्थित ग्राम- मंज्यूड़, पट्टी- बमुण्ड, टिहरी गढ़वाल में श्रीमती सावित्री देवी व बद्री सिंह नेगी के घर जन्मे तथा प्रथम विश्वयुद्ध में शहीद हुए वीर गबर सिंह नेगी को सैन्य कुशलता व वीरता के लिए ब्रिटिश काल में सर्वाेच्च सम्मान विक्टोरिया क्रास से मरणोपरान्त सम्मानित किया गया। एक गरीब परिवार में पले-बढ़े गबर सिंह सतरह-अठारह वर्श की आयु में गढवाल राईफल्स में भर्ती हो गये। तब बाल विवाह की प्रथा थी, गबर सिंह की भी जब शादी हुई थी उनकी आयु भी बामुश्किल सतरह साल रही होगी और पत्नी शतुरी देवी की आयु मात्र दस-ग्यारह वर्ष। शादी के तुरन्त बाद सेना में भर्ती और प्रशिक्षण पूरा ही हुआ कि प्रथम विश्व युद्ध में शरीक होने का फरमान मिल गया, वह भी सात समुद्र पार। बद्री सिंह नेगी जी दो भाई थे- बद्री सिंह और दीवान सिंह। छोटे भाई दीवान सिंह जी के दो पुत्र हुये- पदम सिंह और रैठा सिंह। जबकि बद्री सिंह जी के तीन बेटे और एक बेटी हुई- भोपाल सिंह, जय सिंह और गबर सिंह। गबर सिंह तीन भाईयों में सबसे छोटे थे।

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पर विधाता ने उनके कपाल पर कुछ और लिख दिया। परिवार में भले ही छोटे थे पर देश दुनिया में नाम इतना बड़ा कि हम भी उसी जिले के वासिन्दे हैं कहते हुए सीना गर्व से भर जाता है। पर वैधव्य की अग्नि में जली इस वीर पुरुष की पत्नी शतुरी देवी! किशोरावस्था की दहलीज पर कदम भी नहीं रखा था कि भाग्य में मिला एकाकी जीवन जीने की सजा। अपने मायके मखलोगी पट्टी के छाती गांव से मंज्यूड़ की दूरी भी भली भांति नहीं नाप पाई थी बेचारी। शतुरी देवी आयु में भले ही छोटी थी पर जीवटता में इतनी बड़ी कि गबर सिंह नेगी के नाम की पताका वह पूरी उम्र उठाये रही, गबर सिंह के नाम को अपने से अलग नहीं किया। हाँ, सहारे के लिए अपने जेठ जय सिंह के बेटे रामचन्द्र सिंह को गोद ले लिया। परन्तु भोलापन भी बहुत था उनके अन्दर। कहते हैं वीर गबर सिंह नेगी को मरणोपरान्त जो सर्वोच्च वीरता सम्मान ‘विक्टोरिया क्रॉस’ प्राप्त हुआ था उसे वे कभी-कभी लॉकेट की तरह गले में टांग दिया करती थी। ऐसा कर वह शायद अपने पति गबर सिंह नेगी का साथ होने का अहसास सा पाती होगी।

एक बार जब दुरालगांव या दिखोलगांव के आसपास मंज्यूड़ को लौटते हुए घास का गठ्ठर पीठ पर लादे वह साथी घसियारियांे के साथ सड़क पर चल रही थी तो कमर और सिर आगे की ओर झुका होने के कारण गले मे डोरी से बंधा विक्टोरिया क्रॉस सीने पर झूल रहा था, जिसे वह पहनने के बाद उतारना भूल गई होगी। इतने में सेना की एक टुकड़ी, जो चम्बा की ओर ही आ रही थी, के आफीसर जो जीप से टुकड़ी के आगे-आगे चल रहे थे, की नजर एक मोड़ पर शतुरी देवी जी के गले में लटके विक्टोरिया क्रॉस पर पड़ी तो सर्वोच्च वीरता पुरस्कार के सम्मान में उनका सिर स्वतः ही झुक गया। उन्होंने अपनी गाड़ी धीमी कर दी ताकि वे शतुरी देवी को ओवरटेक न करें। पर शतुरी देवी जी साथी घसियारियों के साथ चलते हुए इस ओर ध्यान ही नहीं दे पाई। अधिकारी की गाड़ी की गति धीमी हुई तो पीछे चलने वाली सेना की अन्य भी गाड़ियां भी धीमे चलने लगी। तब तक जब तक कि शतुरी देवी ने सुस्ताने के भाव से सड़क किनारे एक पैरापिट वाल पर अपना बोझ नीचे नहीं रख दिया। बोझ नीचे रखते ही सेना का अफसर गाड़ी से उतरकर उनके सामने आया, सैल्यूट किया और शतुरी देवी जी से विनती की कि वे इस सर्वोच्च सम्मान को इस प्रकार गले में लटकाकर न जायें। 1983 में उनकी मृत्यु के बाद अब यह विक्टोरिया क्रॉस गढ़वाल राईफल्स मुख्यालय लैंसडाउन के संग्रहालय में है।

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सात समोन्दर पार छ जाण ब्वै, जाज मं जौलु कि नां……………
राष्ट्रीय स्तर पर भारतवर्ष की सैन्य स्थिति तत्समय क्या थी वह संक्षिप्त में इस प्रकार है;
जुलाई 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध प्रारम्भ हुआ उस समय भारतीय सेनाएं युद्ध के लिए पूर्णतः तैयार नहीं थी। मुख्य कारण यह कि उस समय तक भारतीय सेनाओं को मुख्यतः दो ही कार्य करने होते थे;

देश के भीतर आन्तरिक शांति कायम करना और दूसरे देशों में जाकर ब्रिटेन की सेना को सहायता प्रदान करना।
युद्ध में भाग लेने के लिए 1 अगस्त 1914 में भारतीय सेना को निम्न प्रकार से डिविजनों में विभाजित किया गया।
1. पेशावर 2. रावलपिंडी 3. लाहौर 4. क्वेटा 5. महू 6. पूना 7. मेरठ 8. लखनऊ 9. सिकन्दराबाद 10. बर्मा
इस महायुद्ध में भारत की रियासती सेनाओं के लगभग 20,000 सैनिकों ने विभिन्न रणक्षेत्रों में शाही सेना को सहायता की। भारतीय फौजी दस्तों ने फ्रांस, बेल्जियम, तुर्की, मेसोपोटामिया(ईराक), फिलिस्तीन, ईरान, मिश्र और यूनान में हुए अनेक युद्धों में भाग लिया। इनमें यूरोप और अफ्रीका में स्थित वे रणक्षेत्र भी सम्मिलित हैं जहाँ खतरों से घिरे विकट दर्रों तथा गर्म जलवायु या अधिक शीत को झेलते हुए भारतीय सैनिकों को अपनी क्षमता का प्रयोग करना पड़ा, जिसके लिए भारतीय सेना के ग्यारह सैनिकों को ब्रिटिश साम्राज्य के सर्वाेच्च सैनिक सम्मान ‘विक्टोरिया क्रास’(Victoria Cross) से सम्मानित किया गया। इस सन्दर्भ में ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह ने कहा कि ‘प्रथम विष्वयुद्ध में भारतीय सपूतों की वीरता तथा धैर्य की अमर कहानी का मूल्य सम्पूर्ण विष्व की समस्त सम्पति से बढ़कर है…..।’

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गढ़वाल राईफल्स: हिमालय की गोद में बसे गढ़वाल के वीर सैनिक भारतीय सेना में विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनका गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। भारतीय सेना में इन्होने अपनी अपूर्व निष्ठा, साहस, लगन, निडरता, कठोर परिश्रम, भाग्य पर विश्वास एवं कर्तव्य पालन से विशिष्ट पहचान बनायी है। 39 गढ़वाल राइफल्स की फर्स्ट व सेकंड बटालियनों को 9 अगस्त 1914 को प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लेने का आदेश मिला। 20 अगस्त को बटालियन ने लैंसडाउन से प्रस्थान किया। तब बटालियन में 17 गढ़वाली ऑफीसर, 40 हवालदार, 20 नायक, 14 बिगुलर, 640 राइफलमैन व एक वार्ड अर्दली थे। 7 ब्रिटिश ऑफीसर्स और दस प्रतिशत अतिरिक्त सैनिकों को शामिल करने के बाद कुल संख्या 827 थी। एक सप्ताह तक कोटद्वार में रुकने के बाद बटालियनें रेल द्वारा तीन सितम्बर को कराची पहुँची।

मेरठ डिविजन के अंतर्गत गढ़वाल राईफल्स की बटालियनें समुद्र मार्ग से 13 अक्टूबर 1914 को फ्रांस के मरसेल्स बन्दरगाह पहुँची। उस समय मेरठ डिविजन में तीन ब्रिगेड थे; देहरादून ब्रिगेड, गढ़वाल ब्रिगेड व बरेली ब्रिगेड। गढ़वाल ब्रिगेड के कमाण्डर मेजर जनरल एच० डी० युकेरी तथा ब्रिगेडियर जनरल ब्लेकेडर के अधीन गढ़वाल राईफल्स ने फ्रांस तथा बेल्जियम के युद्ध क्षेत्रों पर अपना मोर्चा सम्भाल लिया। 39 गढ़वाल राईफल्स की प्रथम बटालियन को फ्रांस के फेस्टुवर्ड में जर्मन सेना द्वारा हथियाये गये इलाके को मुक्त करने का आदेश था जबकि दूसरी बटालियन को फ्रांस के न्यूवे चैप्पल पर कब्जा करने का आदेश मिला। वीर गबर सिंह नेगी दूसरी बटालियन के सेनानी थे।

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न्यूवे चैप्पल(फ्रांस) का संग्राम: यह सबसे बड़ी एकल लड़ाई थी। 10 से 13 मार्च 1915 तक चले इस संग्राम में 39वीं गढ़वाल राईफल्स की दूसरी बटालियन ने अपना जौहर दिखाया और इंडियन ट्रूप्स के लिए गौरव की प्राप्ति की। जर्मनों ने यहाँ पर चार मील लम्बा अभेद्य मोर्चा कायम कर रखा था। 600 गज का एक फ्रण्ट अटैक 10 मार्च 1915 की सुबह आर्टिलरी बैराज से शुरू हुआ। उस सुबह कड़ाके की ठण्ड, नमी और घना कोहरा था। इसके अतिरिक्त दलदली खेतों, टूटी झाड़ियों और कांटेदार तारों के कारण परिस्थितियां अत्यंत विकट थी। इससे पूर्व 9-10 मार्च 1915 को रात्रि को बटालियन ने न्यू चैप्पल पर आक्रमण कर दिया। सुबह 10 बजे शत्रुओं पर जबरदस्त हमला बोल दिया गया और एक के बाद एक मोर्चों से जर्मन सेना को पीछे हटाते गये। इस फ्रंट पर राईफलमैन गबर सिंह नेगी ने दुश्मनों की मुख्य पंक्ति पर आक्रमण करते हुए विलक्षण वीरता एवं साहस का परिचय दिया। वह बैनट पार्टी के हिस्सा थे जिसके साथ ग्रिनेड राईफल वाले बोम्बर एन सी ओ भी थे। गबर सिंह नेगी दुश्मनों की ओर से गोलियों की वर्षा के बीच तूफान की तरह आगे बढ़ता गया और शत्रुओं को पीछे खदेड़ता गया। जब इनका एन सी ओ शहीद हो गया तो वीर गबर सिंह नेगी ने कमान स्वयं सम्हाल ली और तब तक शत्रुओं का पीछा करता रहा जब तक कि उन्होंने आत्मसमर्पण न कर लिया। इस संघर्ष में उन्हें भी गोली लग गई। एक सच्चे सिपाही की भांति वे युद्ध भूमि में अंतिम क्षण तक डटे रहे और फर्ज के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए।

इस युद्ध में 39 गढ़वाल राईफल्स की दूसरी बटालियन के 20 अफसर और 350 सैनिकों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। अदम्य साहस और अद्भुत पराक्रम के लिए ब्रिटिश सरकार ने वीर गबर सिंह नेगी को मरणोपरांत सर्वाेच्च सैनिक सम्मान ‘विक्टोरिया क्रास’ से सम्मानित किया। वहीं सूबेदार मेजर नैन सिंह एवं जमादार पंचम सिंह महर को ‘मिलिटरी क्रॉस’, सूबेदार नैन सिंह एवं जमादार मकर सिंह को ‘ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इण्डिया’, हवालदार बूथा सिंह नेगी एवं नायक जमन सिंह बिश्ट को ‘इंडियन आर्डर ऑफ़ मेरिट’, तथा सूबेदार केदार सिंह एवं हवालदार रंजीत सिंह पुण्डीर को ‘इंडियन डिस्टीन्गुअश सर्विस मेडल’ प्रदान किया गया।
गढ़वाल राईफल्स के सन्दर्भ में अवकाश प्राप्त मेजर जनरल मेंहदी हसन ने सटीक टिप्पणी की है;

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‘हमारे देष में तकरीबन सभी कौमों की फौजें है, कुछ कौम के लोगों में यह प्रवृत्ति है कि वे थोड़ी सी असफलता पर मायूस हो जाते हैं और उनका हौसला गिर जाता है। लेकिन गढ़वाली कौम में यह खसूसियत(विशेषता) है कि वे नाकामयाबी पर कभी मायूस नहीं होंगे। अपने उद्देश्य पर आखरी दम और आखरी आदमी तक लड़ते रहेंगे। कम से कम जगह, कम से कम खाना, कम से कम सुविधाओं में अधिक से अधिक काम करने की क्षमता रखते हैं। उनको इस प्रकार पक्का बनाने में पहाड़ की अपनी परिस्थितियां भी है।’
39वीं गढ़वाल राईफल्स की वीरता और साहस से प्रभावित होकर फील्ड मार्शल फ्रेंच ने वायसराय को यह रिपोर्ट भेजी ‘इंडियन कोर की सारी यूनिटें जो न्यूवे चैप्पल की लड़ाई में लगी है उन्होंने अच्छा कार्य किया। जिन्होंने विशेष तौर पर प्रसिद्धि पाई उनमे 39वीं गढ़वाल राईफल्स की पहली और दूसरी बटालियन प्रमुख है।’

प्रथम विश्वयुद्ध (1914 -18) में 39 गढ़वाल राईफल्स की दोनों बटालियनों ने विक्टोरिया क्रॉस सहित 25 मेडल्स प्राप्त किये, जो उन्हें विशिष्ट सैनिक सेवाओं और शौर्य के लिए प्रदान किये गए तथा गढ़वाल राईफल्स को रॉयल (Royal) की पदवी से भी सम्मानित किया गया। जो युद्ध भूमि में अपने प्राण न्यौछावर कर गए उन सबकी स्मृति में लैंसडौन- गढ़वाल रायफल्स मुख्यालय में 1923 में युद्ध स्मारक का निर्माण किया गया। यह स्मारक तीर्थस्थल की भांति पवित्र और पूज्य है।

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