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पुरावली गाँव में हुआ नीरज का जन्म

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उत्तर प्रदेश राज्य में यमुना नदी पर एक सुंदर शहर बसा है जिसका नाम इटावा है। एक समय ऐसा भी था जब इटावा को लोग इष्टिकापुर नाम से जानते थे। इटावा का नाम इसलिए पड़ा क्योंकि इटावा शहर में खूब सारी ईंट मिलती है। यमुना, चंबल, क्वारी, सिंध, पहुज यह सारी नदियां इसी शहर में बहती है। यह बहुत प्रसिद्ध शहर है। हमारे धार्मिक ग्रंथ जैसे कि महाभारत और रामायण में भी इस शहर का जिक्र मिलता है। इस शहर में कई प्रसिद्ध लोगों का जन्म हुआ है ।

गोपालदास सक्सेना ‘नीरज’ का जन्म 4 जनवरी 1925 को (ब्रिटिश भारत के संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध, जिसे अब उत्तर प्रदेश के नाम से जाना जाता है) इटावा जिले के ब्लॉक महेवा के निकट पुरावली गाँव में बाबू ब्रजकिशोर सक्सेना के यहाँ हुआ था।

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यमुना किनारे हमारा घर हुआ करता था और घर में बेहद गरीबी थी। जो लोग यमुना नदी में 5 पैसे, 10 पैसे फेंकते थे, हम बच्चे गोता लगाकर उन्हें निकालकर इकठ्‍ठा करते थे और इसी जमा पूंजी से घर का चूल्हा जलता था।

” इस कथन को पढ़कर मेरा मन भावुक हो उठा।

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क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यह किसका कथन हो सकता है? यहां पर बात हो रही है भारत के हिन्दी साहित्यकार और शिक्षक गोपालदास नीरज की।

ऊपर बताया गया यह कथन गोपाल दास नीरज ने एक इंटरव्यू में बोला था।

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कवि सम्मेलनों में अपार लोकप्रियता के चलते नीरज को मुंबई के फिल्म जगत ने गीतकार के रूप में-

“नई उमर की नई फसल” के गीत लिखने का निमंत्रण दिया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। पहली ही फ़िल्म में उनके लिखे कुछ गीत जैसे – ‘कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे‹ और ‘देखती ही रहो आज दर्पण न तुम’ प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा’  बेहद लोकप्रिय हुए जिसका परिणाम यह हुआ कि वे बम्बई में रहकर फ़िल्मों के लिये गीत लिखने लगे। फिल्मों में गीत लेखन का सिलसिला “मेरा नाम जोकर”, “शर्मीली” और “प्रेम पुजारी” जैसी अनेक चर्चित फिल्मों में कई वर्षों तक जारी रहा।

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“फूलों के रंग से दिल की कलम से, तुझको लिखी रोज़ पाती।

कैसे बताऊँ किस किस तरह से,पल पल मुझे तू सताती

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तेरे ही सपने लेकर के सोया, तेरी ही यादों में जागा

तेरे खयालों में उलझा रहा यूँ जैसे के माला में धागा

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हाँ बादल बिजली चंदन पानी जैसा अपना प्यार

लेना होगा जनम हमें कई कई बार।

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”प्रेम पुजारी फिल्म का यह गाना सुनकर मेरा मन खुश हो उठता है। पता नहीं क्यों पर मैं बचपन के दिनों में चली जाती हूँ। इस प्रसिद्ध गाने को लिखने का श्रेय गोपालदास नीरज को ही जाता है। गोपाल दास नीरज भारत के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक गिने जाते हैं।

 

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इटावा के पुरावली गाँव में 4 जनवरी को बाबू ब्रज किशोर सक्सेना के घर एक नन्हें मेहमान ने दस्तक दी। घर पर सभी बहुत ज्यादा खुश हुए। सभी की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। सभी बहुत खुश हुए। इस बच्चे का नाम रखा गया गोपालदास सक्सेना। लेकिन यह खुशी तब कम हो गई जब 6 साल की उम्र में ही उसके पिता का साया उसके सिर पर से उठ गया। यही गोपालदास सक्सेना ही आगे चलकर “नीरज” कहलाए।

गोपालदास नीरज ने सबसे पहले अपने घर पर ही रहकर पढ़ाई शुरू की। फिर जब वह बड़े हुए तो उनका दाखिला एटा जिले की एक हाई स्कूल में करवाया गया। क्योंकि उनको पता था कि उनके घर की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी इसलिए उन्होंने मन लगाकर पढ़ाई की।

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वह पढ़ाई में बिल्कुल भी नहीं हारे। यही एक कारण था कि उन्होंने हाई स्कूल को प्रथम श्रेणी में पास किया। उनकी पढ़ाई करने की लालसा इतनी ज्यादा थी कि उन्होंने कॉलेज में प्रवेश पाने के लिए पहले नौकरी की और वही पैसे अपने कॉलेज में भी लगाए। साल 1949 में उनकी इण्टरमीडिएट पूरी हो गई थी। फिर उन्होंने लग्न के साथ बी०ए० और एम०ए० भी पूरी कर ली।

गोपालदास नीरज का विवाह कब हुआ यह तो पता नहीं। लेकिन उनका विवाह बड़ा ही रोचक रहा। कहते हैं कि गोपालदास जब कॉलेज के दिनों में थे तो इनको इश्क का बुखार चढ़ गया था। वह एक लड़की से बेहद प्यार करने लगे थे। वह लड़की भी नीरज से उतना ही प्यार करती थी।

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वह दोनों शादी करना चाहते थे। लेकिन शायद घरवालों को यह बात बिल्कुल भी रास नहीं आई। वह इस शादी के खिलाफ थे। आखिरकार हुआ यह कि नीरज और उस लड़की को अलग होना पड़ा। और ऐसे में उनका ब्रेकउप हो गया। फिर नीरज के घरवालों ने उसकी शादी सावित्री देवी सक्सेना से करवा दी। इस शादी से उनको तीन बच्चे भी हुए।

शशांक प्रभाकर, कुंदनिका शर्मा और मिलान प्रभात।

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“जितना कम सामान रहेगा, उतना सफ़र आसान रहेगा।

जितनी भारी गठरी होगी, उतना तू हैरान रहेगा।

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उससे मिलना नामुमक़िन है, जब तक ख़ुद का ध्यान रहेगा। हाथ मिलें और दिल न मिलें,ऐसे में नुक़सान रहेगा।

जब तक मन्दिर और मस्जिद हैं,मुश्क़िल में इन्सान रहेगा‘। नीरज’ तो कल यहाँ न होगा, उसका गीत-विधान रहेगा”।

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“तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा’

सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा।

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वो जिस्म ही था जो भटका किया ज़माने में,

हृदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा।

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तू ढूँढ़ता था जिसे जा के बृज के गोकुल में,

वो श्याम तो किसी मीरा की चश्मे-तर में रहा।

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वो और ही थे जिन्हें थी ख़बर सितारों की,

मेरा ये देश तो रोटी की ही ख़बर में रहा।

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हज़ारों रत्न थे उस जौहरी की झोली में,

उसे कुछ भी न मिला जो अगर-मगर में रहा”।

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“अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई’

मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई।

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आप मत पूछिये क्या हम पे ‘सफ़र में गुज़री?

आज तक हमसे हमारी न मुलाकात हुई।

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हर गलत मोड़ पे टोका है किसी ने मुझको

एक आवाज़ तेरी जब से मेरे साथ हुई।

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मैंने सोचा कि मेरे देश की हालत क्या है

एक क़ातिल से तभी मेरी मुलाक़ात हुई”।

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“दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था

तुम्हारे घर का सफ़र इस क़दर सख्त न था।

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इतने मसरूफ़ थे हम जाने के तैयारी में,

खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक्त न था।

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मैं जिस की खोज में ख़ुद खो गया था मेले में,

कहीं वो मेरा ही एहसास तो कमबख्त न था”।

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विश्व उर्दू परिषद् पुरस्कार पद्म श्री सम्मान (1991), भारत सरकार यश भारती एवं एक लाख रुपये का पुरस्कार (1994), उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ पद्म भूषण सम्मान (2007), भारत सरकार।

1970: काल का पहिया घूमे रे भइया! (फ़िल्म: चन्दा और बिजली)1971: बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ (फ़िल्म: पहचान)1972: ए भाई! ज़रा देख के चलो (फ़िल्म: मेरा नाम जोकर)।

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गोपालदास नीरज अपने समय के बेहतरीन कवि और लेखक थे। वह अपने समय के एक सर्वश्रेष्ठ कलाकार थे। उनके बोलने और लिखने की शैली से लोग बहुत ज्यादा प्रभावित होते थे। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके समय के शानदार लेखकों ने उनकी तारीफों के कसीदे पढ़े थे।

बौद्ध भिक्षु और लेखक भदन्त आनंद कौशल्यायन ने एक बार कहा था कि गोपालदास हिंदी साहित्य के अश्वघोष के समान है। यही नहीं महान कवि दिनकर जी ने गोपालदास को हिंदी की “वीणा” माना था।  दिनकर जी ने कहा कि जैसे वीणा मधुर संगीत छोड़ती है ठीक उसी प्रकार गोपालदास नीरज भी अपने लिखने की मधुर शैली से सभी को प्रभावित कर देते हैं। लोगों को उनकी किताबें पढ़नी अच्छी लगती थी। उनकी किताबों की मांग थी।

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इसी के चलते ही उनकी कई किताबों को गुजराती, मराठी, बंगाली, पंजाबी, रूसी आदि भाषाओं में अनुवादित किया गया था। नीरज द्वारा लिखे गए फिल्मी गीत भी लोगों द्वारा खूब सराहे गए। एक दौर ऐसा था जब नीरज के फिल्मी गाने जब रेडियो पर चलते थे तो सुनने वाले लोग खुशी से झूम उठते थे।

गोपालदास नीरज ने अपने पूरे जीवन में उल्लेखनीय काम किए थे। उनकी लिखने की जो शैली थी वह बहुत अच्छी थी।  इनके द्वारा लिखे हुए गाने और कविताएं को लोग खूब पसंद किया करते थे। उनकी लिखने की जो शैली थी वह बहुत ही सरल थी। वह कविताओं की भाषा को कभी भी तोड़ मरोड़ के नहीं लिखना चाहते थे। उनकी कविताएं स्पष्ट होती थी। वह ही एक ऐसे लेखक थे जिन्होंने शिक्षा और साहित्य में भारत सरकार द्वारा दो बार पुरस्कार हासिल किए थे।

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पद्म भूषण से सम्मानित कवि, गीतकार गोपालदास ‘नीरज’ ने दिल्ली के एम्स में #19_जुलाई_2018 की शाम लगभग 8 बजे अन्तिम सांस ली।

अपने बारे में उनका यह शेर आज भी मुशायरों में फरमाइश के साथ सुना जाता है :

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“इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में,

लगेंगी आपको सदियाँ हमें भुलाने में।

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न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर

ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में”।

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