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1966 में आई ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म ‘तीसरी कसम’

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फ़िल्म- तीसरी कसम

रिलीज़- 1966

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निर्देशक एवं संवाद लेखन- बासु भट्टाचार्य

गीत- शैलेन्द्र/हसरत जयपुरी

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संगीत- शंकर-जयकिशन

मुख्य कलाकार- राज कपूर, वहीदा रहमान

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जाने कितने सवालों के जवाब राज कपूर और वहीदा रहमान की फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ बेहद आसानी और खूबसूरती से दे जाती है।1966 में आई ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ गाँव में रहने वाले एक ऐसे गरीब बैलगाड़ी चलाने वाले युवक हीरामन (राज कपूर) की कहानी है जो अपनी ज़िंदगी में आई मुसीबतों से बचने के लिए तीन कसमें खाता है। एक बार एक गलत धंधा करने वाले को अपनी बैलगाड़ी में बैठा कर ले जाते हुए पकड़े जाने पर बड़ी मुश्किल से पुलिस से बचने के बाद वो पहली कसम ये खाता है कि वो कभी गलत धंधा करने वाले इंसान को अपनी बैलगाड़ी में नहीं बैठाएगा। ज़िंदगी में अपनी दूसरी कसम वो तब खाता है जब दो आदमियों को जो बाँस की तस्कर होते हैं वो हीरामन की इसी चक्कर में पिटाई कर देते हैं। तब वो अपनी दूसरी कसम ये खाता है कि वो कभी भी किसी का भी बाँस अपनी बैलगाड़ी में ले कर नहीं जाएगा।

इस फ़िल्म की असली कहानी हीरामन की वो तीसरी कसम है जो वो गाँव-गाँव घूमने वाली नौटंकी मंडली की एक नर्तकी हीराबाई जो असल में एक तवायफ होती है, उससे मिलने के बाद खाता है और वो ये होती है कि वो उसके बाद कभी भी किसी नौटंकी कंपनी में नाचने वाली को अपनी बैलगाड़ी में नहीं बैठाएगा।

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ये फ़िल्म हिंदी उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु की लघु कथा ‘मारे गए गुलफाम’ पर आधारित है। इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खासियत इसकी कहानी और फिर इस कहानी को पर्दे पर उतारने वाले कलाकार राज कपूर और वहीदा रहमान हैं। फ़िल्म में कुल 10 गीत हैं और सभी गीत काफी लोकप्रिय हुए थे जिनमें से कुछ गीत जैसे ‘दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई’, ‘आ भी जा रात ढलने लगी’, ‘चलत मुसाफिर’, ‘पान खाये सईयाँ हमारो’ आज तक सुने जाते हैं और जब भी ये गीत रेडियो या टीवी पर कभी सुनाई पड़ जाते हैं तो लोग आज भी उन्हें चाव से सुनने बैठ जाते हैं। फ़िल्म के संवाद कानों में मिश्री घोलने का काम करते हैं।

बिना बड़े-बड़े सेट लगाए, बिना बड़े-बड़े, महलनुमा घरों के, बिना कोई स्पेशल इफ़ेक्ट या वीएफएक्स के, बिना किसी विदेशी लोकेशन के बस आँखों से ही मन के भाव कितनी सरलता और सहजता से दिखाए और महसूस कराए जा सकते हैं, ये हमें इस फ़िल्म को और इस फ़िल्म के कलाकारों के अभिनय को देख कर पता चल जाता है।   बासु भट्टाचार्य ने उस ज़माने के गाँव के एक गरीब आम आदमी में जीवन को बड़े पर्दे पर ऐसे उतारा है जैसे किसी चित्रकार ने अपने जीवन का सबसे बेहतरीन चित्र कैनवस पर उतारा हो और इस तस्वीर में रंग भरने का काम राज कपूर जी और वहीदा रहमान जी ने अपने अभिनय की तूलिका से किया हो।

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ये फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर तब भले ही कमाल न कर पाई हो पर ये फ़िल्म उस वर्ष का राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने में ज़रूर सफल रही थी।

 

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