यहीं दिये थे भोलेनाथ ने अंग्यारी महर्षि को दर्शन
Advertisementउत्तराखंड में कई पवित्र हिंदू मंदिर हैं जैसे छोटा चार धाम, पंच केदार, पंच प्रयाग, पंच बद्री, शक्ति पीठ और सिद्ध पीठ। ये पवित्र तीर्थ पर्वतीय क्षेत्रों में हिमालय की शांति में सुशोभित हैं, जो आभा को दिव्य बनाते हैं।
हिंदू देवताओं के दिव्य हस्तक्षेप में आत्मसमर्पण कर सकता है और पहाड़ी मंदिरों के आध्यात्मिक आनंद में रोमांचित हो सकता है। हजारों सालों से, ऋषि और संत भगवान शिव के हिमालय निवास में चले गए हैं और वासुदेव, सर्वशक्तिमान से आशीर्वाद मांगते हैं। उत्तराखंड में कई सदियों पुराने मंदिर हैं। इनमे से एक हैं भगवान शिव का मंदिर अंग्यारी महादेव मंदिर। अंग्यारी महादेव मंदिर चमोली और बागेश्वर जिले की सीमा पर स्थित है। यह पवित्र मंदिर चमोली जिले के ग्वालदम क्षेत्र में स्थापित है। तलवाड़ी, ग्वालदम या गैरसैंण होते हुए यहां पहुंचा जा सकता है। सावन के महीने में यहां कई तीर्थयात्री आते हैं, जिनमें मुख्य रूप से स्थानीय गांव के लोग होते हैं। किवदंती है कि यहां महर्षि अंग्यारी ने भगवान शिव की तपस्या की थी, जिससे प्रसन्न होकर भोलेनाथ ने अंग्यारी महर्षि को दर्शन दिए। कहा जाता है कि उस वक़्त यहां गंगा, गोमती ओर भागीरथी नदी भी अवतरित हुई थी।
वक्त के साथ धीरे-धीरे गंगा ओर भागीरथी विलुप्त हो गई, लेकिन गोमती नदी का अंश अभी भी यहां मौजूद है। गढ़वाल व कुमाऊ की सीमा पर स्थित अंग्यारी महादेव मे भी श्रद्धालु भोले के दर्शन कर मनौतिया मांगते हैं, अंग्यारी महादेव पहुंचने के लिए दुर्गम रास्तों को पार कर श्रद्धालु पहुंचते है। वही निसंतान दंपती यहां पर आकर पुत्र के लिए मनौतिया मांगते है और जो सच्ची श्रद्धा से यहां आते है उसकी मनौतिया अवश्य पूर्ण होती है। गढ़वाल एवं कुमाऊं की सीमा पर स्थित अंग्यारी महादेव का मंदिर आज भी आस्था का प्रतीक बना हुआ है। अपनी पौराणिक महत्व एवं जनमानस के आराध्य स्थल बने हुए हैं, जहां देव भूमि की महत्ता पर यहां के चार धाम चार चांद लगाते हैं, वहीं कुछ देव स्थल प्रसिद्धि पाने में असफल हुए हैं। कुछ भौगोलिक एवं अन्य परिस्थितियों के कारण गुमनाम की परिधि एवम विकास की दौड़ में पीछे छूट गए हैं। इन्हीं में एक जनपद चमोली एवं जनपद बागेश्वर की सीमा पर विकास खंड थराली एवं विकास खंड गरुड़ के मजकोट ग्राम से लगभग 5 किलोमीटर तथा तलवाड़ी से 4 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और बिनातोली से लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर घनघोर जंगल में स्थित अंग्यारी महादेव का मंदिर है। स्कंद पुराण के अनुसार इस स्थान पर अंगरिषी ने अपनी तपस्थली रही जिस कारण यहां का नाम अंग्यारी महादेव पड़ा।मान्यता के अनुसार इस स्थान कई ऋषि मुनियों की तपस्थली रही है।
इस स्थान पर पहुंचने के लिए कठिन एवं दुर्गम पहाड़ियों एवं घनघोर पगडंडियों को पार करना पड़ता है, परंतु भोले के भक्तों का यहां पहुंचने पर अधिक आत्मविश्वास नहीं जा पाता है। जहां श्रद्धालु मंदिर परिसर में पहुंचते हैं वहीं उनकी सारी थकान छूमंतर हो जाती है और भक्त शांति की अनुभूति महसूस करते हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार पर पहुंचते ही गाय रूपी आकृति शीला के मुंह से पानी की धारा निकलती है जो वसुधारा के नाम से प्रसिद्ध है। इसी को गोमती नदी का उद्गम स्थल कहा जाता है। मान्यता के अनुसार अंग ऋषि के पिता गुरु बृहस्पति ने इस स्थान पर शिव की तपस्या की। कठिन तपस्या करने के पश्चात जब उन्हें भोले शंकर के दर्शन हुए तो उन्होंने सबसे पहले भोलेनाथ से उसी स्थान पर पानी के लिए भोलेनाथ से प्रार्थना की।
भगवान शिव ने वहीं पर चट्टान से पानी की धारा परवाहित की जहां से गोमती नदी का उद्गगम स्थल कहा गया है। नदी के उद्गगम स्थल के साथ-साथ अंगरिषी ज़ब आगे बढ़े जहाँ-जहाँ पर उनके पग पड़े वही-वही शिवलिंग प्रकट हो गए। गोमती नदी बैजनाथ, गागरीगोल होते हुए बागनाथ पहुंचने पर सरयू मे मिलती है। बागनाथ विश्वामित्र की तपस्थली रही है। किवदंती के अनुसार वसुधारा से पहले दूध का निकलना बताया जाता है। देव दोष या छेड़छाड़ के कारण दूध की जगह खून निकलना शुरू हुआ जिसके कारण आज भी गोमती के पत्थर लाल रंग के हैं और आज गोमती नदी उद्गम स्थल से मंदिर के परिसर से कुछ दूरी तक भूमिगत रहती है और रतीसेरा महादेव पहुंचने पर भूमि से बाहर निकलती है। मंदिर परिसर में भगवान हनुमान, राधा कृष्ण, शिव जी का मंदिर है, जबकि यहां पर आस्था का प्रतीक शिवलिंग सतयुग के समय का होना बताया जाता है।
शिवालाय के ठीक पीछे एक बद्री वृक्ष है जो घनघोर जंगल के बीच होने के कारण किसी-किसी को दिखता है। आवागमन में सही साधन ना होने के कारण यह स्थान सदियों से गुमनामी की दश झेल रहा है। 1910 में यहां पर मजकोट के भवान गिरी तपस्या करने के लिए पहुंचे। जिन्होंने कुछ समय पश्चात समाधि ले ली थी। तत्पश्चात बाबा महेंद्र जी ने भी इस स्थान पर पूजा अर्चना एवं तपस्या की फलस्वरूप इनकी समाधि मंदिर के नीचे बनी हुई है। 90 के दशक में विश्वविद्यालय में कार्यरत प्रोफेसर काला बाबा इस स्थान पर पहुंचे और तपस्या करने लगे तभी से यहां पर भक्तो का आवागमन मे विस्तार हुआ। वैसे 1950 से लोगों का इस स्थान पर आवागमन प्रारंभ हो गया था। यहां जो सच्चे मन से आते हैं और पूजा अर्चना करते हैं उनकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है l