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अयोध्या नगरी के कण-कण में बसे हुए हैं श्री राम

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देहरादून। सरयू नदी के किनारे बसी इस अयोध्या नगरी के कण-कण में राम बसे हुए हैं, यही वजह है कि ये जगह हमेशा से राम भक्तों के आस्था का केंद्र रही है। अयोध्या प्राचीन कोसल राज्य का हिस्सा था, जिसकी राजधानी साकेत (अयोध्या) थी. प्राचीन भारतीय ग्रंथों में भी अयोध्या का जिक्र मिलता है, जिनके अनुसार अयोध्या की स्थापना 2200 ई.पू. के आसपास हुई। वहीं कई प्राचीन ग्रंथों, गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस मानस में भगवान राम की जन्म स्थली के रूप में अयोध्या का उल्लेख किया गया है। अयोध्या का पुराना नाम साकेत हुआ करता था। त्रेता युग में यह नगर कोसल राज्य की राजधानी हुआ करता था, जिसकी वजह से कई लोग इसे कोसल भी कहते थे। इसके अलावा अयोध्या को अयुद्धा के नाम से भी जाना जाता है। सतयुग में अयोध्या को वैवस्वत मनु ने बसाया था। इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध वैवस्वत मनु के 10 पुत्र थे, जिसमें इक्ष्वाकु कुल का सबसे ज्यादा विस्तार हुआ। इक्ष्वाकु कुल में आगे चलकर प्रभु श्रीराम का जन्म हुआ। एस.के.एम. न्यूज़ सर्विस आज इस लेख के माध्यम से इतिहास के पन्ने पलटने का प्रयास कर रहा हैं, जिससे पता चलता हैं की तीर्थ नगरी अयोध्या को सतयुग में वैवस्वत मनु ने बसाया था। यहीं प्रभु श्रीराम का जन्म हुआ जिसका जिक्र वाल्मीकि की रामायण में भी है। सालों तक चले राम राज्य के बाद जब श्रीराम ने जल समाधि ले ली तो अयोध्य नगरी सूनी हो गई। भगवान राम के जल समाधि लेने के बाद अयोध्य धीरे-धीरे उजड़ती जा रही थी, लेकिन राम जन्मभूमि पर बना महल वैसा ही था। भगवान राम के पुत्र कुश ने फिर अयोध्या को पुनर्निर्माण किया और इसके बाद सूर्यवंश की 44 पीढ़ियों ने यहां पर राज किया। सूर्यवंश के आखिरी राजा महाराजा बृहद्बल तक राम जन्मभूमि की देखभाल होती रही। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य जब यहां आखेट करने आए तो उन्हें उजाड़ भूमि पर कुछ चमत्कार दिखाई देने लगे, खोच की तो पता चला कि ये श्रीराम की अवध भूमि है। इसके बाद उन्होंने यहां श्रीराम के भव्य मंदिर का निर्माण कराया जिसमें काले रंग के कसौटी पत्थर वाले 84 स्तंभ थे। समय-समय पर यहां राजाओं ने मंदिर की देखभाल की, लेकिन 14वीं शताब्दी में जब भारत में मुगलों का शासन हुआ तो श्रीराम जन्मभूमि को नष्ट कर वहां बाबरी मंजिद बना दी गई। 1525 में राम जन्मभूमि मंदिर को बाबर के सेनापति मीर बांकी ने ध्वस्त करवाया था। 1528 में अयोध्या में राम जन्मभमूमि पर मस्जिद बना दी गई।  बाबरी मस्जिद की तीन गुंबद थी। जिसके बाहरी हिस्से में एक चबूतरे में श्रीराम के बाल स्वरूप की पूजा होती थी। इसे राम चबूतरा कहते थे लेकिन 1949 में बाबरी मस्जिद के मुख्य गुंबद के ठीक नीचे वही मूर्ति निकली जो सदियों से राम चबूतरे पर विराजमान थी।

मुगल शासक बाबर भारत आया तो दो साल बाद बाबर के सूबेदार मीरबाकी ने अयोध्या में एक मस्जिद बनवाई। यह मस्जिद उसी जगह बनी जहां भगवान राम का जन्म हुआ था। बाबर के सम्मान में मीर बाकी ने इस मस्जिद का नाम बाबरी मस्जिद दिया। ये वो दौर था जब मुगल शासन पूरे देश में फैल रहा था। मुगलों और नवाबों के शासन के दौरान 1528 से 1853 तक इस मामले में हिंदू बहुत मुखर नहीं हो पाए। 19वीं सदी में मुगलों और नवाबों का शासन कमजोर पड़ने लगा। अंग्रेज हुकूमत प्रभावी हो चुकी थी। इस दौर में ही हिंदुओं ने यह मामला उठाया और कहा कि भगवान राम के जन्मस्थान मंदिर को तोड़कर मस्जिद बना ली गई। इसके बाद से रामलला के जन्मस्थल को वापस पाने की लड़ाई शुरू हुई।

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मीरबाकी के मस्जिद बनाने के 330 साल बाद 1858 में लड़ाई कानूनी हो गई, जब पहली बार परिसर में हवन, पूजन करने पर एक एफआईआर हुई। अयोध्या रिविजिटेड किताब के मुताबिक एक दिसंबर 1858 को अवध के थानेदार शीतल दुबे ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि परिसर में चबूतरा बना है। ये पहला कानूनी दस्तावेज है जिसमें परिसर के अंदर राम के प्रतीक होने के प्रमाण हैं। इसके बाद तारों की एक बाड़ खड़ी कर विवादित भूमि के आंतरिक और बाहरी परिसर में मुस्लिमों और हिंदुओं को अलग-अलग पूजा और नमाज की इजाजत दी गई।

1858 में हुई घटना के 27 साल बाद 1885 में राम जन्मभूमि के लिए लड़ाई अदालत पहुंची। जब, निर्मोही अखाड़े के मंहत रघुबर दास ने फैजाबाद के न्यायालय में स्वामित्व को लेकर दीवानी मुकदमा दायर किया। मंहत रघुबर दास ने बाबरी ढांचे के बाहरी आंगन में स्थित राम चबूतरे पर बने अस्थायी मंदिर को पक्का बनाने और छत डालने की मांग की। जज ने फैसला सुनाया कि वहां हिंदुओं को पूजा-अर्चना का अधिकार है, लेकिन वे जिलाधिकारी के फैसले के खिलाफ मंदिर को पक्का बनाने और छत डालने की अनुमति नहीं दे सकते।

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एक ओर जहां देशभर में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन चलाकर आजादी लेने की मुहिम जारी रही, वहीं दूसरी ओर राम जन्मभूमि की लड़ाई भी जारी रही। देश के आजाद होने के दो साल बाद 22 दिसंबर 1949 को ढांचे के भीतर गुंबद के नीचे मूर्तियों का प्रकटीकरण हुआ।

आजादी के बाद पहला मुकदमा हिंदू महासभा के सदस्य गोपाल सिंह विशारद ने 16 जनवरी, 1950 को सिविल जज, फैजाबाद की अदालत में दायर किया। विशारद ने ढांचे के मुख्य गुंबद के नीचे स्थित भगवान की प्रतिमाओं की पूजा-अर्चना की मांग की। करीब 11 महीने बाद 5 दिसंबर 1950 को ऐसी ही मांग करते हुए महंत रामचंद्र परमहंस ने सिविल जज के यहां मुकदमा दाखिल किया। मुकदमे में दूसरे पक्ष को संबंधित स्थल पर पूजा-अर्चना में बाधा डालने से रोकने की मांग रखी गई। 3 मार्च 1951 को गोपाल सिंह विशारद मामले में न्यायालय ने मुस्लिम पक्ष को पूजा-अर्चना में बाधा न डालने की हिदायत दी। ऐसा ही आदेश परमहंस की तरफ से दायर मुकदमे में भी दिया गया।17 दिसंबर 1959 को रामानंद संप्रदाय की तरफ से निर्मोही अखाड़े के छह व्यक्तियों ने मुकदमा दायर कर इस स्थान पर अपना दावा ठोका। साथ ही मांग रखी कि रिसीवर प्रियदत्त राम को हटाकर उन्हें पूजा-अर्चना की अनुमति दी जाए। यह उनका अधिकार है। मुकदमों की कड़ी में एक और मुकदमा 18 दिसंबर 1961 को दर्ज किया गया। ये मुकदमा उत्तर प्रदेश के केंद्रीय सुन्नी वक्फ बोर्ड ने दायर किया। कहा कि यह जगह मुसलमानों की है। ढांचे को हिंदुओं से लेकर मुसलमानों को दे दिया जाए। ढांचे के अंदर से मूर्तियां हटा दी जाएं। ये मामले न्यायालय में चलते रहे। फैसलों की बात करें उससे पहले राम काज के लिए हुए कुछ और आंदोलनों की तरफ चलते हैं।

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1982 में विश्व हिंदू परिषद ने राम, कृष्ण और शिव के स्थलों पर मस्जिदों के निर्माण को साजिश करार दिया और इनकी मुक्ति के लिए अभियान चलाने का एलान किया। दो साल बाद 8 अप्रैल 1984 को दिल्ली में संत-महात्माओं, हिंदू नेताओं ने अयोध्या के श्रीराम जन्मभूमि स्थल की मुक्ति और ताला खुलवाने को आंदोलन का फैसला किया। मुकदमों की बात हुई है तो फिर से कानूनी लड़ाई की ओर चलते हैं और बात फैसलों की करते हैं। एक फैसला 1 फरवरी 1986 को आया जब फैजाबाद के जिला न्यायाधीश केएम पाण्डेय ने स्थानीय अधिवक्ता उमेश पाण्डेय की अर्जी पर इस स्थल का ताला खोलने का आदेश दे दिया। फैसले के खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में दायर अपील खारिज हो गई। जनवरी 1989 में प्रयाग में कुंभ मेले के दौरान मंदिर निर्माण के लिए गांव-गांव शिला पूजन कराने का फैसला हुआ। साथ ही 9 नवंबर 1989 को श्रीराम जन्मभूमि स्थल पर मंदिर के शिलान्यास की घोषणा की गई। काफी विवाद और खींचतान के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने शिलान्यास की इजाजत दे दी। बिहार निवासी कामेश्वर चौपाल से शिलान्यास कराया गया।

1990 के दशक में आंदोलन तेज हो रहा था। इस बीच सितंबर 1990 को लाल कृष्ण आडवाणी रथ यात्रा लेकर निकले। इस यात्रा ने राम जन्मभूमि आंदोलन को और धार दे दी। देश की राजनीति तेजी से बदल रही थी। आडवाणी गिरफ्तार हुए। गिरफ्तारी के साथ केंद्र में सत्ता परिवर्तन भी हुए। भाजपा के समर्थन से बनी जनता दल की सरकार गिर गई। कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। ये सरकार भी ज्यादा नहीं चली। नए सिरे से चुनाव हुए और एक बार फिर केंद्र में कांग्रेस सत्ता में आई। इन सब के बीच आई  6 दिसंबर 1992, इस दिन अयोध्या पहुंचे हजारों कारसेवकों ने विवादित ढांचा गिरा दिया। इसकी जगह इसी दिन शाम को अस्थायी मंदिर बनाकर पूजा-अर्चना शुरू कर दी। केंद्र की तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने राज्य की कल्याण सिंह सरकार सहित अन्य राज्यों की भाजपा सरकारों को भी बर्खास्त कर दिया। उत्तर प्रदेश सहित देश में कई जगह सांप्रदायिक हिंसा हुई, जिसमें अनेक लोगों की मौत हो गई। अयोध्या श्रीराम जन्मभूमि थाना में ढांचा ध्वंस मामले में भाजपा के कई नेताओं समेत हजारों लोगों पर मुकदमा दर्ज कर दिया गया। इसके साथ ही राम काज की कानूनी लड़ाई में मुकदमों की संख्या में और इजाफा होने लगा।

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बाबरी ढहाए जाने के दो दिन बाद 8 दिसंबर 1992 को अयोध्या में कर्फ्यू लगा था। वकील हरिशंकर जैन ने उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में गुहार लगाई कि भगवान भूखे हैं। राम भोग की अनुमति दी जाए। करीब 25 दिन बाद 1 जनवरी 1993 को न्यायाधीश हरिनाथ तिलहरी ने दर्शन-पूजन की अनुमति दे दी। 7 जनवरी 1993 को केंद्र सरकार ने ढांचे वाले स्थान और कल्याण सिंह सरकार द्वारा न्यास को दी गई भूमि सहित यहां पर कुल 67 एकड़ भूमि का अधिग्रहण कर लिया।

अप्रैल 2002 में उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने विवादित स्थल का मालिकाना हक तय करने के लिए सुनवाई शुरू हुई। उच्च न्यायालय ने 5 मार्च 2003 को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को संबंधित स्थल पर खुदाई का निर्देश दिया। 22 अगस्त  2003 को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने न्यायालय को रिपोर्ट सौंपी। इसमें संबंधित स्थल पर जमीन के नीचे एक विशाल हिंदू धार्मिक ढांचा (मंदिर) होने  की बात कही गई।

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30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस स्थल को तीनों पक्षों श्रीराम लला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड में बराबर-बराबर बांटने का आदेश दिया। न्यायाधीशों ने बीच वाले गुंबद के नीचे जहां मूर्तियां थीं, उसे जन्मस्थान माना। इसके बाद मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा। अयोध्या में राम जन्मभूमि की लड़ाई अब देश की सर्वोच्च अदालत तक पहुंच चुकी थी। 21 मार्च 2017 को सर्वोच्च न्यायालय ने मध्यस्थता से मामले सुलझाने की पेशकश की। यह भी कहा कि दोनों पक्ष राजी हों तो वह भी इसके लिए तैयार है।

6 अगस्त 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिदिन सुनवाई शुरू की। 16 अक्तूबर 2019 को सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई पूरी हुआ और कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया। इससे पहले 40 दिन तक लगातार सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई।

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9 नवंबर 2019 को 134 साल से चली आ रही लड़ाई में अब वक्त था अंतिम फैसले का। 9 नवंबर 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने संबंधित स्थल को श्रीराम जन्मभूमि माना और 2.77 एकड़ भूमि रामलला के स्वामित्व की मानी। वहीं, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड के दावों को खारिज कर दिया गया। इसके साथ ही कोर्ट ने निर्देश दिया कि मंदिर निर्माण के लिए केंद्र सरकार तीन महीने में ट्रस्ट बनाए और ट्रस्ट निर्मोही अखाड़े के एक प्रतिनिधि को शामिल करे। इसके अलावा यह भी आदेश दिया कि उत्तर प्रदेश की सरकार मुस्लिम पक्ष को वैकल्पिक रूप से मस्जिद बनाने के लिए 5 एकड़ भूमि किसी उपयुक्त स्थान पर उपलब्ध कराए।

इसी के साथ दशकों से चली आ रही लंबी कानूनी लड़ाई समाप्त हो गई। 5 फरवरी 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अयोध्या में मंदिर निर्माण के लिए राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट की घोषणा की। ठीक छह महीने बाद 5 अगस्त 2020 को अयोध्या में राम मंदिर की आधारशिला रखी गई, जिसमें पीएम मोदी शामिल हुए।

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134 साल चली कानूनी लड़ाई के बाद अब अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण हो रहा है। राम जन्मभूमि पर मंदिर के पहले चरण का काम पूरा हो गया है। 22 जनवरी 2024 को मंदिर में पूजा-विधि के जजमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों श्रीरामलला के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा हुई। रामलला 22 जनवरी 2024 को दोपहर 12 बजकर 30 मिनट पर अभिजीत मुहूर्त में नवनिर्मित मंदिर में विराजमान हुये। 22 जनवरी का दिन बेहद शुभ था। 22 जनवरी 2024 को अयोध्या में प्रभु रामलला की प्राण प्रतिष्ठा हुई। उस दिन सर्वार्थ सिद्धि योग, अमृत सिद्धि योग और मृगशिरा नक्षत्र था। 22 जनवरी 2024 दिन सोमवार को हरि अर्थात् विष्णु मुहूर्त था जो 41वर्ष बाद आया था।

“मंदिर का निर्माण 70 एकड़ भूमि के उत्तरी भाग पर किया जा रहा है। यहां तीन मंजिला मंदिर बनाया जा रहा है। मंदिर के भूतल का काम पूरा हो चुका है, पहली मंजिल निर्माणाधीन है।” मंदिर निर्माण में लोहे का प्रयोग नहीं किया गया है और नींव के ऊपर कंक्रीट का भी प्रयोग नहीं किया गया गया है। निर्माण की तकनीक की विशिष्टता नींव से ही निहित है। मंदिर की नींव चार सौ फीट लंबे एवं तीन सौ फीट चौड़े विशाल भूक्षेत्र पर मोटी रोलर कांपेक्टेड कंक्रीट की 14 मीटर मोटी कृत्रिम चट्टान ढाल कर की गई है। मंदिर की प्लिंथ 380 फीट लंबी एवं 250 फीट चौड़ी है तथा मंदिर के मुख्य शिखर की ऊंचाई 161 फीट है। मंदिर में नृत्य, रंग, सभा, प्रार्थना एवं कीर्तन मंडप के रूप में पांच मंडप होंगे। मंदिर की प्लिंथ तक पहुंचने के लिए 32 सीढ़ियां चढ़नी होंगी। मंदिर के चारो ओर आयताकार परकोटा है, जिसकी लंबाई 732 मीटर तथा चौड़ाई 14 फीट है। परकोटा के चारो कोनों पर भगवान सूर्य, मां भगवती, गणपति एवं भगवान शिव के सहित परकोटा में ही वाल्मीकि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, अगस्त्य, निषादराज, माता शबरी एवं देवी अहिल्या का भी मंदिर निर्मित होना है। अहमदाबाद शहर में स्थित सोमपुरा परिवार के द्वारा अयोध्या के राम मंदिर का मूल डिजाइन 1988 में तैयार किया गया था। सोमपुरा परिवार मंदिर के डिजाइन बनाने में एक पारंगत परिवार रहा है। दुनिया भर में अनगिनत मंदिर का डिजाइन सोमपुरा परिवार की पीढ़ियों द्वारा बनाया गया है। इसमें सोमनाथ मंदिर भी शामिल है। मुख्य वास्तुकार श्री चंद्रकांत सोमपुरा जी थे और उनकी ही पीढ़ी के उनके दो बेटे, श्री निखिल सोमपुरा जी और श्री आशीष सोमपुरा जी ने कुछ बदलावों को करते हुए एक नया डिजाइन, 2020 में तैयार किया गया था।

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