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भीषण समस्या है ग्लेशियरों की बाढ़ का मंडराता खतरा–ज्ञानेन्द्र रावत

ग्लेशियरों
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मौसम में दिनोंदिन आ रहा बदलाव एक भीषण समस्या बन चुका है जिसके दुष्प्रभाव से समूची दुनिया अछूती नहीं रही है। ग्लोबल वार्मिंग ने इसमें अहम भूमिका निबाही है। दुनिया में हो रहे नित नये-नये शोध इस बात के प्रमाण हैं कि भले ही ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान पर रोक दिया जाये, इसके बावजूद दुनिया में तकरीब दो लाख पंद्रह हजार ग्लेशियरों में से आधे से ज्यादा और उनके द्रव्यमान का एक चौथाई हिस्सा इस सदी के अंत तक पिघल जायेगा। शोध और अध्ययनों में खुलासा हो चुका है कि यह पेरिस समझौते के लक्ष्य से भी परे है।

यह स्थिति तब है जबकि इससे पहले जितने भी शोध और अध्ययन हुए हैं वह इस बात के सबूत हैं कि बीती सदी में दुनिया में समुद्र के जल स्तर में जो बढ़ोतरी हुई है, उसका एक तिहाई हिस्सा ग्लेशियरों के पिघलने से आया है। असलियत यह है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते दुनियाभर के ग्लेशियर पिघल -पिघलकर टुकडो़ं में बंटते चले गये। कारण पर्वतीय इलाकों में तापमान में बढो़तरी की दर दोगुना रही है इसके कारण यह बदलाव आया है। वैज्ञानिकों ने आशंका व्यक्त की है कि इन हालातों में सदी के अंत तक दुनिया के आधे से ज्यादा ग्लेशियर पिघल जायेंगे।

इसका मुकाबला इसलिए और जरूरी है कि हमारी धरती आज जितनी गर्म है उतनी मानव सभ्यता के इतिहास में कभी नहीं रही है। इससे यह जाहिर हो जाता है कि हम आज एक अलग दुनिया में रहने को विवश हैं जबकि हम यह भलीभांति जानते-समझते हैं कि यह खतरे की घंटी है। सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि ग्लेशियर पिघलने से बनी झीलों से आने वाली बाढ़ से भारत समेत समूची दुनिया के तकरीब डेढ़ करोड़ लोगों के जीवन पर खतरा मंडराने लगा है। ब्रिटेन के न्यू कैसल यूनिवर्सिटी के शोध से इसका खुलासा हुआ है। शोध की यह रिपोर्ट बीते दिनों नेचर कम्यूनिकेशंस नामक जर्नल में प्रकाशित हुई है। उसमें कहा गया है कि दुनिया के डेढ़ करोड़ लोगों में सबसे ज्यादा खतरा भारत के लोगों को है जहां तीस लाख से ज्यादा लोगों का जीवन ग्लेशियर से आने वाली बाढ़ के कारण खतरे में है। इसके बाद पाकिस्तान का नम्बर है जहां करीब 7000 से ज्यादा ग्लेशियर हिमालय, हिन्दूकुश और कराकोरम पर्वत श्रृंखलाओं में मौजूद हैं जहां की बीस लाख से भी ज्यादा आबादी पर यह खतरा मंडरा रहा है।

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न्यू कैसल यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं की टीम के प्रमुख केरोलिन टेलर की मानें तो उनकी टीम के शोधकर्ताओं ने पूरी दुनिया में 1089 ग्लेशियर झीलों की घाटी की पहचान की है। इन ग्लेशियरों की घाटियों के 50 किलोमीटर के दायरे में रहने वाले लोगों की तादाद शोधकर्ताओं ने 1.5 करोड़ आंकी है। उनके अनुसार यह 1.5 करोड़ आबादी चार देशों की है जिसमें भारत, पाकिस्तान, चीन और पेरू शामिल हैं। यह देश ग्लेशियर से बनी झीलों से आने वाली बाढ़ से सबसे ज्यादा खतरे में हैं। रिपोर्ट के मुताबिक उपग्रह द्वारा साल 2020 में किए गये अध्ययन में बताया गया है कि बीते 30 सालों में ग्लोबल वार्मिंग में 50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है जिसके कारण दुनिया के ग्लेशियरों से बनी झीलें टुकड़ों में बंट गयीं। यदि पूर्व औद्योगिक काल की बात करें तो उस दौरान से अब तक धरती का तापमान 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। जबकि यह आश्चर्य की बात है कि पूरी दुनिया के पर्वतीय इलाकों में तापमान में दोगुणे से भी अधिक की बढ़ोतरी हुई है।

गौरतलब है कि जैसे जैसे जलवायु गर्म होती है, उसी तेजी से ग्लेशियर पिघलते हैं और पिघला हुआ पानी ग्लेशियर के आगे जमा हो जाता है और वह झील का रूप अख्तियार कर लेता है। ये झीलें अचानक फट भी सकती हैं। झीलें फट पड़ने की स्थिति में इनका पानी तेजी से बहता है और 120 किलोमीटर से भी अधिक इलाके को अपनी जद में ले लेता है। इन हालात में आयी बाढ़ काफी भयावह और विनाशकारी होती है जो जन-धन, संपत्ति, कृषि भूमि, बुनियादी ढांचे, लोगों सहित सभी कुछ मानकों में तबाह कर देती है। गौरतलब है कि 1990 के बाद से जलवायु परिवर्तन के चलते ऐसी झीलों की तादाद में काफी तेजी से बढ़ोतरी हुई है। 2021 में फरवरी माह में उत्तराखंड के चमोली जिले में आयी बाढ़ ऐसी ही आपदा का परिणाम थी जिसमें अनुमानतः सैकडो़ं लोगों की मौत हो गयी थी और बहुतेरे लापता हो गये जिनका आजतक पता ही नहीं चल सका है।

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सबसे बड़ी बात यह कि तापमान में बढो़तरी और जलवायु में बदलाव को रोकने की दिशा में जो भी अभी तक प्रयास किए गये हैं, उनका कोई कारगर परिणाम सामने नही आ सका है। यही सवाल सबसे अहम और बेहद चिंता का सबब भी है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जीवाश्म ईंधन जलाने से मानव इतिहास में जितना उत्सर्जन हुआ है, उसका आधा बीते केवल 30 सालों में ही हुआ है। यदि 2015 में जारी वैश्विक तापमान बढो़तरी के 10 सालों के औसत पर नजर डालें तो पता चलता है कि औद्यौगिक क्रांति से पूर्व की तुलना में तापमान में 0.87 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज की गयी थी जो 2020 में यानी केवल पांच साल में ही बढ़कर 1.09 डिग्री सेल्सियस हो गयी। केवल पांच साल में इसमें 25 फीसदी की बढो़तरी हालात की गंभीरता की ओर इशारा करती है।

असलियत यह है कि दुनिया में वैज्ञानिकों की सोच से भी ज्यादा तेजी से ग्लेशियर खत्म हो रहे हैं। कानेंगी मेलन यूनिवर्सिटी और फेयरबैंक्स यूनिवर्सिटी के शोध ने इसका खुलासा कर दिया है कि यदि जलवायु परिवर्तन की दर इसी तरह बरकरार रही तो इस सदी के आखिर तक दुनिया के दो तिहाई ग्लेशियरों का अस्तित्व ही खत्म हो जायेगा। और यदि दुनिया आने वाले दिनों में वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने में कामयाब रहती है उस हालत में भी आधे ग्लेशियर गायब हो जायेंगे। हकीकत में हम बहुत सारे ग्लेशियर खोने जा रहे हैं। लेकिन हमारे पास क्षमता है कि हम ग्लेशियर के पिघलने की दर को सीमित कर उसके अंतर को कम कर सकते हैं। हालांकि छोटे ग्लेशियरों के लिए तो काफी देर हो चुकी है और वह विलुप्ति की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। इसका सीधा-साधा मतलब है कि 2100 तक दुनिया के ग्लेशियरों का 32 फीसदी हिस्सा यानी 48.5 ट्रिलियन मीट्रिक टन बर्फ पिघल जायेगी। इससे जहां बाढ़ का खतरा बढ़ेगा, वहीं समुद्री जल स्तर में और 115 मिलीमीटर की बढ़ोतरी होगी। समुद्र के जलस्तर में यदि 4.5 इंच की बढ़ोतरी होती है तो समूची दुनिया में तकरीब एक करोड़ से अधिक लोग उच्च ज्वार रेखा से नीचे होंगे। तात्पर्य यह कि समुद्र तटीय रहने वाले लोग इससे सर्वाधिक प्रभावित होंगे और उन्हें ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पडे़गा।

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दरअसल जलवायु परिवर्तन के अलावा मानवीय गतिविधियां और जरूरत से ज्यादा दोहन भी ग्लेशियरों के पिघलने का एक बहुत बडा़ कारण है। अब यह जगजाहिर है कि ग्लेशियरों के पिघलने से ऊंची पहाडि़यों में तेजी से कृत्रिम झीलें बनेंगीं और इन झीलों के टूटने से बाढ़ तथा ढलान पर बनी बस्तियों तथा वहां रहने-बसने वाले लोगों पर खतरा बढ़ जायेगा। इससे पेयजल समस्या तो विकराल होगी ही, पारिस्थितिकी तंत्र भी प्रभावित हुए नहीं रहेगा जो भयावह खतरे का संकेत है। ग्लेशियरों पर मंडराते संकट को नकारा नहीं जा सकता। यदि यह पिघल गये तो ऐसी स्थिति में सारे संसाधन खत्म हो जायेंगे और ऐसी आपदाओं में बेतहाशा बढो़तरी होगी। इसलिए जहां बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन से प्राथमिकता के आधार पर लड़ना जरूरी है, वहीं ग्लेशियर से बनी झीलों से उपजे संकट का समाधान भी बेहद जरूरी है।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।)

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